सीडीएससीओ यानी सेंट्रल ड्रग स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गेनाइज़ेशन ने दवाओं पर एक मासिक रिपोर्ट जारी की है. इसमें 48 दवाएं शामिल हैं.
इस सूची में पेरासिटामोल, पेन-डी, और ग्लेसिमेट एसआर 500 जैसी दवाएं भी हैं, जो सामान्य तौर पर इस्तेमाल की जाती हैं. ये दवाएं आवश्यक गुणवत्ता पैमाने पर खरी नहीं उतरी हैं.
सीडीएससीओ हर महीने तय मानकों से नीचे मिलने वाली दवाओं की एक सूची जारी करता है. अगस्त महीने की सूची में 48 दवाएं शामिल हैं, जिनमें वो दवाएं भी हैं, जो आमलोग ज़्यादातर इस्तेमाल करते हैं.
पेरासिटामोल आईपी 500 एमजी का उत्पादन कर्नाटक एंटीबायोटिक्स और फॉर्मास्यूटिकल्स और पेन-डी का उत्पादन अलकेम हेल्थ साइंस करती है.
वहीं, मॉन्टेयर एलसी किड का उत्पादन प्योर एंड क्योर हेल्थकेयर प्रायवेट लिमिटेड और ग्लेसिमेट एसआर 500 का उत्पादन स्कॉट-एडिल फार्मेसिया करती है.
इनको सूची में उन दवाओं में रखा गया है, जो गुणवत्ता के पैमाने पर खरी नहीं उतर पाई हैं.
दो बड़ी फ़ार्मा कंपनी सन फ़ार्मा और टोरंट ने कहा है कि रिपोर्ट में जिन दवाओं का नाम है वो उन्होंने नहीं बनाई हैं.
स्टैंडर्ड क्वालिटी’ ना होने का क्या अर्थ?
दवाओं को कई कारणों से तय मानकों की गुणवत्ता में कमी वाली कैटेगरी में रख दिया जाता है, जैसे वज़न तय सीमा से कम होना, दिखने में अंतर या उसकी घुलनशीलता में फर्क होना.
उत्पाद की असली पहचान छिपाकर उसे दूसरी दवा बताकर बेचना किसी भी दवा को ‘जाली या नकली दवा’ बनाता है.
हाल ही में आई सूची में एमॉक्सिलिन और पौटेशियम क्लेवोनेट आईपी (क्लेवम 625), एमॉक्सिलिन एंड पौटेशियम क्लेवोनेट टैबलेट्स (मैक्सक्लेव 625), पेन्टोप्राज़ोल गैस्ट्रो-रसिस्टेंड एंड डोमपेरिडोन प्रोलॉन्ग्ड- रिलीज कैप्सूल्स आईपी (पैन-डी) को नकली यानी जाली दवा बताया गया.
नकली दवा बनाने वालों के ख़िलाफ़ ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट एमेंडमेंट 2008 के तहत कार्रवाई की जा सकती है. इस क़ानून में 10 साल से लेकर उम्र क़ैद तक की सज़ा का प्रावधान है.
इसके अलावा कम से कम दस लाख रुपये या जब्त की गई दवा की तीन गुनी कीमत (इन दोनों में से जो भी राशि अधिक हो) बतौर जुर्माना वसूल किए जाने का प्रावधान भी है.
इस सूची में शामिल बाक़ी दवाओं को तय मानकों से नीचे मानने की वजह उनके तत्व, घुलने और शरीर में मिलने जैसे ब्योरे या दवा की बनावट में पाई गई दिक्कतें हैं.
सभी दवाएं एक खास खेप का हिस्सा हैं, जो गुणवत्ता परीक्षण में फेल हो गईं और इनको बाज़ार से वापस मंगवाया गया है.
असली और नकली दवा में फ़र्क कैसे करें?
दवाओं के नकली होने की ख़बर से कुछ लोग चिंतित हैं.
चेन्नई में रहने वाले 58 वर्षीय संकरन कहते हैं, ‘‘मैं 10 साल से डायबिटीज़ की दवा ले रहा हूं. मुझे इन दवाओं को नियमित तौर पर लेना होता है. मुझे इसके विकल्प के लिए और कहां जाना चाहिए? हमें यह कैसे पता लगेगा कि कौन सी दवा गुणवत्ता के पैमाने पर खरी नहीं उतरी है? कोई जनता को इस बारे में कुछ क्यों नहीं बताता है? हमें अधूरी जानकारी और रिपोर्ट्स के साथ अंधेरे में रखा जाता है.’’
चेन्नई के अरुमबक्कम में रहने वाली 43 वर्षीय उषारानी पूछती हैं कि अगर डॉक्टरों की लिखी जा रही दवाएं भी सुरक्षित नहीं हैं, तो उन जैसे लोग क्या करें?
डॉक्टरों का कहना है कि तय मानकों पर खरी न उतर पाने वाली दवाओं का नियमित सेवन सेहत पर बुरा असर कर सकता है.
चेन्नई के डॉक्टर चंद्रशेखर ने सही दवा की पहचान के लिए ये बातें बताईं –
- अगर दवाओं में उपयुक्त मात्रा में इनग्रेडिएंट यानी अंश ना हों तो दवा का असर मनचाहा नहीं होता.
- तय मानकों पर ख़रा न उतर पाने वाली दवाओं का सेवन लंबे समय तक करने से शरीर के अंगों को नुक़सान हो सकता है.
- अगर कोई डायबिटिज़ या हाई ब्लड प्रेशर जैसी बीमारियों के लिए दवा ले रहा है तो यह ज़रूरी है कि वो डॉक्टर से समय-समय पर जाँच करवाए.
- मेडिकल स्टोर से दवा खरीदते वक्त आईएसओ (इंटरनेशनल ऑर्गेनाइज़ेशन फॉर स्टैंडर्डाइज़ेशन) या डब्ल्यूएचओ-जीएमपी (वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइज़ेशन गुड मैन्युफैक्चरिंग प्रैक्टिस) का सर्टिफ़िकेट ज़रूर देखें.
- जिन दवाओं की एक्सपाइरी डेट नज़दीक आ चुकी है, उन्हें ख़रीदने से बचें. अगर दवाओं को सही ढंग से स्टोर नहीं किया गया हो तो वो बेअसर हो सकती हैं.
- इंजेक्शन और इंसुलिन जैसी दवाएं ख़रीदने से पहले ये पता कर लें कि जहां से खरीद रहे हैं वहाँ रेफ्रिज़रेशन की सुविधा है कि नहीं.
सावधान रहने की ज़रूरत
ड्रग कंट्रोल निदेशालय के अधिकारी और दवाओं के डीलरों का कहना है कि घबराने की ज़रूरत नहीं है. ऐसी जाँच नियमित तौर पर होती रहती है और इनसे ‘ज़िंदगी को ख़तरे’ जैसी कोई बात नहीं है.
तमिलनाडु केमिस्ट एंड ड्रगिस्ट एसोसिएशन के अध्यक्ष एस.एस. रमेश कहते हैं कि छोटे-मोटी ख़ामियों के कारण भी दवाओं को सब-स्टैंडर्ड करार दिया जाता है और ऐसे कड़े नियमों के कारण दवाओं की क्वालिटी सुधारने में मदद मिलती है.
उन्होंने बताया, ‘‘अगर किसी दवा को आपके मुंह में पांच सेकेंड में घुल जाना चाहिए लेकिन उस छह सेकेंड लगते हैं तो इसे सब-स्टैंडर्ड मान लिया जाता है.”
चेन्नई के डॉक्टर अश्विन कहते हैं, ‘‘कुछ कैमिस्ट 80 फ़ीसदी तक का डिस्काउंट देते हैं. लेकिन कोई 100 रुपए का उत्पाद 20 रुपए में कैसे बेच सकता है? कई जगहों पर दवाएं बड़ी मात्रा में ख़रीद ली जाती हैं, और जब उनकी एक्सपाइरी डेट में तीन महीने बचते हैं तो उनको भारी डिस्काउंट पर बेचा जाता है.’’
डॉक्टर अश्विन कहते हैं कि अगर दवाओं की पैकेजिंग ठीक से नहीं की गई हो या उन्हें ठीक तरह से स्टोर नहीं किया गया हो तो एक्सपाइरी डेट के नज़दीक आते ही उनका असर घट जाता है.
डॉक्टर अश्विन कहते हैं, ‘‘कुछ मौकों पर आईवी दवाओं (सीधे ब्लडस्ट्रीम में इंजेक्ट की जाने वाली दवाएं) में बैक्टीरिया भी पनप जाते हैं. इंसुलिन को 6 डिग्री सेल्सियस तापमान में रखना होता है, मगर जब इसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजा जाता है, तो कई बार इस बात का ध्यान नहीं रखा जाता है. इसलिए इंसुलिन ऑनलाइन नहीं ख़रीदनी चाहिए क्योंकि सही तापमान के बिना ये सिर्फ़ पानी है.”
इंडियन ड्रग मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन तमिलनाडु, केरल, पॉन्डिचेरी चैप्टर्स के चेयरमैन जे जयसीलन का कहना है कि नकली दवाओं और तय मानकों पर खरा न उतर पाने वाली दवाओं में भेद करने की ज़रूरत है.
उनके मुताबिक- तय मानकों पर खरा न उतरने वाली दवा का पता लगाना भी इंडस्ट्री प्रैक्टिस का हिस्सा है, और वहीं अवैध दवाओं पर तत्काल कार्रवाई की जाती है.
उन्होंने कहा, ‘‘सामान्य तौर पर 3 से 5 फ़ीसदी सैंपल ऐसे होते हैं, जो तय मानकों पर ख़रा नहीं उतर पाते हैं, जबकि 0.01 फ़ीसदी सैंपल ऐसे होते हैं, जो नकली निकलते हैं. तय मानकों पर खरा नहीं उतरने वाली दवाओं की खेप को तुरंत बाज़ार हटा लिया जाता है. अमेरिका जैसे देशों में भी ये होता है. ये ऐसा मुद्दा नहीं है जिससे सेहत को कोई गंभीर ख़तरा हो.”
जयसीलन कहते हैं, ‘‘कई बार कैमिस्ट दवाओं को निर्धारित तापमान में स्टोर नहीं करते हैं. ऐसे में जब 12 महीने बाद दवा को टेस्ट किया जाता है तो उसकी गुणवत्ता तय मानक से कम मिल सकती है. केंद्र सरकार दवाओं के वितरण की अच्छी व्यवस्था लागू करने जा रही है जिसमें वितरण प्रक्रिया में शामिल हर व्यक्ति की ज़िम्मेदारी तय होगी. मुझे उम्मीद है कि इससे निगरानी में सुधार होगा.”
जयसीलन कहते हैं कि भारत को फॉर्मेसी ऑफ़ द वर्ल्ड कहा जाता है. अमेरिका की 40 फ़ीसदी और यूरोप की 25 फ़ीसदी दवाएं भारत में बनती हैं. कई गरीब देश भी दवाओं के लिए भारत पर निर्भर हैं.
जे जयसीलन ने इस बात पर ज़ोर दिया कि लोगों को उस मेडिकल स्टोर से दवा लेनी चाहिए, जिसने इसकी पढ़ाई की हो.
फ़ार्मा कंपनियां क्या कह रही हैं?
सन फॉर्मा और टोरंट ने कहा, ”सेंट्रल ड्रग स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गनाइज़ेशन ने जो दवाएँ नकली बताई हैं, वो हमने नहीं बनाई हैं.”
न्यूज़ एजेंसी पीटीआई के मुताबिक- सन फ़ार्मा के प्रवक्ता ने कहा, ‘‘हमारी कंपनी ने इस मामले की जाँच की है. इसमें पाया गया कि पल्मोसिल (सिल्डेनेफिल इंजेक्शन), बैच नंबर केएफए0300, पेन्टोसिट (पेन्टोप्राज़ोल टैबलेट आईपी), बैच नंबर एसआईडी2041ए और यूरोस्कोल 300 (उर्सोडियोक्सिकोलिक एसिट टैबलेट आईपी), बैच नंबर जीटीई1350ए नकली हैं.”
सन फ़ार्मा ने यह भी कहा कि वो मरीज़ों की सुरक्षा को लेकर कदम उठा रहे हैं.
कंपनी ने कहा, ‘‘हम अपने कुछ ब्रैंड्स पर क्यूआर कोड भी प्रिंट करवा रहे हैं. मरीज़ आसानी से इस पर लिखे कोड के ज़रिए दवा की प्रमाणिकता की जाँच कर सकता है.’’
द हिंदू ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि टोरंट फ़ार्मा ने भी उसी खेप (शेलकाल 500) की जाँच की, जिसका सैंपल सीडीएससीओ ने लिया था. इस कंपनी ने भी अपनी जाँच में पाया कि ये दवाएं नकली थीं. टोरंट फ़ार्मा का कहना है कि शेलकाल पर क्यू आर कोड थे लेकिन सीडीएससीओ ने जो सैंपल जब्त किए उन पर ये क्यूआर कोड नहीं थे.
लेकिन इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष डॉक्टर जयलाल ने कहा, ”दवाओं के गुणवत्ता पर खरा न उतर पाना गंभीर चिंता का विषय है. इस मामले में ठोस कदम उठाने की ज़रूरत है. दवा के वितरण से जुड़े हर पहलू पर नज़र रखने की जरूरत है. यानी दवा बनाने वाली कंपनी से उपभोक्ता तक पहुंचने के दौरान दवा पर नज़र रखने की जरूरत है. कई पश्चिमी देशों में ऐसा होता भी है.’’
उन्होंने कहा, ‘‘पश्चिमी देशों की तर्ज पर दवाओं के फ़ैक्ट्री से ग्राहक तक पहुंचने को ट्र्रैक किए जाने की ज़रूरत है. सरकारी एजेंसियां सबसे कम बोली लगाने वाली कंपनी को दवा का ठेका देती हैं. ऐसे में शायद तय मानकों पर खरा न उतर पाने वाली दवाएं भी सरकारी क्षेत्र में वितरण प्रणाली में शामिल हो जाती है.’’
सरकार क्या कदम उठा रही है?
डॉक्टर श्रीधर तमिलनाडु ड्रग कंट्रोल के जॉइंट डायरेक्टर हैं. उन्होंने बताया कि जब कोई दवा तय मानकों पर खरा नहीं उतरती , तो तुरंत उसकी जाँच शुरू कर दी जाती है.
इसके तहत दवा बनाने वाले और इसे बाज़ार में बेचने वाले का पता लगाया जाता है.
उन्होंने कहा, ‘‘सबसे पहले इन दवाओं को दुकानों से हटाने का आदेश दिया जाता है. दवा सभी दुकानों से हटा ली जाती है. दवा बनाने वाले का पता लगने के बाद हम यह पता लगाते हैं कि ग़लती कहां की गई?’’
उन्होंने कहा, ‘‘इसके बाद दवा बनाने वाले को नोटिस जारी किया जाता है और उससे जवाब मांगा जाता है. अगर कंपनी लगातार ऐसी गलती करती है, तो उनके ख़िलाफ़ ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट की सेक्शन 18 के तहत क़ानूनी कार्रवाई की जाती है.’’
तमिलनाडु ड्रग सेलर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष नटराज ने बताया कि दवाओं के ऑनलाइन बिकने के कारण बाज़ार में तय मानकों पर खरा न उतर पाने वाली दवाओं की संख्या में इजाफ़ा हो रहा है.
उन्होंने कहा, ‘‘ऑनलाइन दवा की बिक्री में कश्मीर से भी कोई व्यक्ति तमिलनाडु में दवा बेच सकता है. कोई इसकी जाँच नहीं करता है कि दवा कहां से आई है.’’
तमिलनाडु ड्रग कंट्रोल डायरेक्टोरेट ने दवाओं की निगरानी तेज़ कर दी है. उन्होंने हर महीने लिए जाने वाले दवाओं के सैंपल भी बढ़ाने का निर्देश दिया है.
तमिलनाडु ड्रग कंट्रोल के जॉइंट डायरेक्टर डॉक्टर श्रीधर कहते हैं, ‘‘राज्य में 146 दवा निरीक्षक हैं. एक निरीक्षक हर महीने खुदरा व्यापारी, होलसेलर्स और सरकारी अस्पतालों से 8 सैंपल इकट्ठा करता है. अब उसे हर महीने दस सैंपल लेने के लिए कहा गया है.’