क़रीब एक दशक के बाद भारत का कोई विदेश मंत्री पाकिस्तान के दौरे पर जा रहा है.
विदेश मंत्री एस जयशंकर शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक में हिस्सा लेने पाकिस्तान जाएंगे.
4 अक्टूबर को विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने इसकी पुष्टि करते हुए कहा कि विदेश मंत्री इस्लामाबाद में 15 और 16 अक्टूबर को होने वाली एससीओ की बैठक में भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करेंगे.
इससे पहले दिसंबर, 2015 में तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ”हार्ट ऑफ एशिया कॉन्फ्रेंस” में हिस्सा लेने इस्लामाबाद पहुंची थीं.
अब एक बार फिर भारत के विदेश मंत्री पाकिस्तान के दौरे पर जा रहे हैं, तो इसके क्या मायने हैं?
विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल से जब एक पत्रकार ने ये पूछा कि क्या विदेश मंत्री का दौरा भारत-पाकिस्तान के रिश्तों में सुधार लाने की कोशिश के तौर पर देखा जाएगा?
जवाब में जायसवाल ने कहा, ”ये दौरा एससीओ मीटिंग के लिए है, इससे ज़्यादा इसके बारे में न सोचें.”
अगले ही दिन 5 अक्टूबर को विदेश मंत्री एस जयशंकर ने भी इस दौरे के बारे में बताते हुए कहा कि वो ”भारत-पाकिस्तान के संबंधों पर चर्चा के लिए” पाकिस्तान नहीं जा रहे हैं, वो शंघाई सहयोग संगठन में हिस्सा लेने जा रहे हैं.
प्रोफेसर हर्ष वी पंत, नई दिल्ली स्थित ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन के अध्ययन और विदेश नीति विभाग के उपाध्यक्ष हैं.
उनका भी मानना है कि भारत-पाकिस्तान संबंधों के लिए ये दौरा ज़्यादा अहम नहीं है, लेकिन एससीओ के लिहाज़ से ये महत्वपूर्ण है.
प्रतीकात्मक तस्वीर
पंत कहते हैं, ”मेरा मानना है कि मौजूदा दौर में भारत के पास कोई ऐसा प्रोत्साहन नहीं है, पाकिस्तान की आंतरिक परिस्थितियां भी पूरी तरह से सुधरी नहीं हैं. वहां सत्ता के केंद्र को लेकर भी कोई स्पष्टता नहीं है. इसलिए भारत के पास कोई बड़ा कारण नहीं है कि वह पाकिस्तान के मौजूदा प्रशासन के साथ सीधा संवाद करे. इसलिए मुझे नहीं लगता कि इस दौरे से द्विपक्षीय संबंधों में कोई बड़ा बदलाव आएगा.”
हालांकि, वो ये भी कहते हैं कि भारत नहीं चाहता है कि उसके ”मित्र देश” भारत-पाकिस्तान विवादों की वजह से एससीओ में किसी प्रकार की अड़चन देखें. प्रोफ़ेसर पंत कहते हैं, ”भारत ये नहीं चाहेगा कि एससीओ के दूसरे सदस्य देश महसूस करें कि भारत अपनी विदेश नीति में एससीओ की अहमियत को कम कर रहा है.”
वो आगे कहते हैं, ”देखिए, अगर प्रधानमंत्री खुद पाकिस्तान जाते, तो इसका एक अलग संदेश होता, और इससे कुछ अलग मायने निकाले जाते. लेकिन प्रधानमंत्री नहीं जा रहे हैं, उनकी जगह विदेश मंत्री जा रहे हैं. इसका मतलब साफ़ है कि भारत फ़िलहाल उच्च-स्तरीय नेतृत्व के स्तर पर पाकिस्तान के साथ द्विपक्षीय बातचीत के लिए तैयार नहीं है. यह एक स्पष्ट संदेश है कि भारत किसी प्रकार की बातचीत नहीं चाहता, लेकिन फिर भी विदेश मंत्री का वहां जाना ये दिखाता है कि भारत एससीओ जैसे बहुपक्षीय मंचों में अपनी ज़िम्मेदारी निभाने के लिए तैयार है.”
वॉशिंगटन डीसी के विल्सन सेंटर थिंक टैंक में साउथ एशिया इंस्टीट्यूट के निदेशक माइकल कुगेलमैन भी ये मानते हैं कि यह दौरा द्विपक्षीय संबंधों से ज़्यादा एससीओ के लिए है.
माइकल कुगेलमैन एक्स पर लिखते हैं कि निश्चित तौर पर यह फ़ैसला भारत-पाकिस्तान संबंधों को आगे बढ़ाने की इच्छा से अधिक, शंघाई सहयोग संगठन (SCO) के लिए भारत की प्रतिबद्धता को दिखाता है.
हालांकि, वो यह भी लिखते हैं, ”जयशंकर का पाकिस्तान दौरा भले ही द्विपक्षीय कूटनीति से ज़्यादा बहुपक्षीय कूटनीति है, लेकिन इसके बावजूद भारत-पाकिस्तान के संबंधों के लिए इसके महत्व को नज़रअंदाज नहीं किया जाना चाहिए.”
तर्क के तौर पर वो लंबे गैप के बाद किसी केंद्रीय मंत्री के पाकिस्तान जाने को अहम बताते हैं. वो लिखते हैं, ”2016 के बाद पहली बार है कोई भारतीय कैबिनेट मंत्री पाकिस्तान जा रहा है.”
प्रधानमंत्री मोदी के साथ रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह (फाइल फोटो)
बता दें कि साल 2016 में राजनाथ सिंह बतौर गृहमंत्री सार्क की बैठक के लिए पाकिस्तान गए थे.
कई देशों में भारत के राजदूत रह चुके पूर्व राजनयिक राजीव डोगरा राजनाथ सिंह के उस दौरे को याद करते हैं.
मोहनलाल शर्मा से बातचीत में वो कहते हैं कि विदेश मंत्री का पाकिस्तान जाना भारत की तरफ़ से सराहनीय पहल है लेकिन ”पाकिस्तान के व्यवहार के बारे में कुछ कह नहीं सकते.”
साल 2016 के राजनाथ सिंह के पाकिस्तान दौरे को याद करते हुए वो कहते हैं, ”उस वक्त पाकिस्तान के तत्कालीन गृहमंत्री चौधरी निसार अली ख़ान, राजनाथ से काफ़ी ख़राब तरीके से पेश आए थे.”
पाकिस्तान के बर्ताव का उदाहरण देते हुए राजीव डोगरा पिछले साल भारत आए पाकिस्तान के विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो की भी बात करते हैं.
वो कहते हैं, ”बिलावल भुट्टो जब आए थे, उसके बाद जो उन्होंने बयान दिया था, वो ऐसे बयान नहीं थे, जो रिश्तों को आगे बढ़ाने लायक हों, तो बातचीत वहीं ख़त्म हो गई थी.”
दुनिया के दूसरे देशों का इस दौरे पर क्या नज़रिया हो सकता है?
इस समय एससीओ देशों में पूरी दुनिया की लगभग 40 फ़ीसदी आबादी रहती है. पूरी दुनिया की जीडीपी में एससीओ देशों की 20 फ़ीसदी हिस्सेदारी है. दुनिया भर के तेल रिज़र्व का 20 फ़ीसदी हिस्सा इन्हीं देशों में है.
ऐसे में एससीओ देशों के बीच चल रही हलचल पर पूरी दुनिया की नज़र रहती है. इस लिहाज़ से दुनिया के दूसरे देश भारत के विदेश मंत्री के एक लंबे समय बाद पाकिस्तान जाने को किस नज़रिए से देख सकते हैं?
एससीओ में शामिल होने आए राष्ट्राध्यक्ष (फाइल फोटो, 2017)
इस सवाल के जवाब में प्रोफ़ेसर पंत कहते हैं कि भारत का उद्देश्य हमेशा से एससीओ में अपनी भूमिका को सकारात्मक रूप से पेश करना रहा है, चाहे उसके चीन या पाकिस्तान के साथ संबंध कैसे भी हों.
”ये दौरा इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह भारत की भूमिका को स्पष्ट करता है कि वह एससीओ में पूरी तरह से जुड़ा हुआ है और अपने सकारात्मक एजेंडे के साथ आगे बढ़ रहा है.”
वो ये भी कहते हैं कि भारत ने दुनिया के लिए ये स्पष्ट कर दिया है कि भारत अपने हितों को प्राथमिकता देते हुए अपनी शर्तों पर पाकिस्तान के साथ संबंधों को देखेगा.
प्रोफ़ेसर पंत कहते हैं, ”मुझे लगता है कि अब दुनिया भारत और पाकिस्तान को एक ही तराज़ू में तौलना बंद कर चुकी है. जब भारत के विदेश मंत्री पाकिस्तान जाएंगे, तो दुनिया इसे इस नज़रिए से देखेगी कि भारत अब एक आत्मविश्वासी देश के तौर पर आगे बढ़ रहा है. भारत आर्थिक रूप से उभर रहा है और उसने सफलतापूर्वक चुनाव संपन्न कराए हैं. कश्मीर का मुद्दा भी अब किसी तरह से हाशिए पर चला गया है.”
एस जयशंकर
नेबरहुड फर्स्ट पॉलिसी”?
इस दौरे को पूर्व राजनयिक केपी फैबियन ”नेबरहुड फर्स्ट पॉलिसी” के अगले कदम की तरह देखते हैं.
न्यूज़ एजेंसी एएनआई से बातचीत में वो कहते हैं, “नेबरहुड फर्स्ट पॉलिसी को पुनर्जीवित किया जा रहा है. आपको याद होगा कि विदेश मंत्री ने मालदीव में तीन दिन बिताए थे. वो नए श्रीलंकाई राष्ट्रपति से मिलने वाले पहले विदेशी मंत्री थे. ये अच्छा है कि वो वहां जा रहे हैं.”
हालांकि, प्रोफ़ेसर हर्ष वी. पंत इससे पूरी तरह से सहमत नज़र नहीं आते हैं कि ये नीति ‘पुनर्जीवित’ हो रही है.
वो कहते हैं कि भारत की तो हमेशा से ”नेबरहुड फर्स्ट पॉलिसी” रही है. ”आप पड़ोसी देशों से दूर कैसे रह सकते हैं. पड़ोसी देशों के लिहाज़ से भारत ने कभी अपनी ज़िम्मेदारियों से मुंह नहीं मोड़ा है, लेकिन पाकिस्तान कभी भी ‘नेबरहुड फर्स्ट पॉलिसी’ का हिस्सा नहीं रहा है.”
एस जयशंकर कैसे पेश आएंगे?
पिछले साल मई में एससीओ की ही बैठक में हिस्सा लेने पाकिस्तान के तत्कालीन विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो ज़रदारी भारत आए थे.
भारत और पाकिस्तान के बीच चले आ रहे तनावपूर्ण संबंधों के बीच ऐसा माना गया कि बिलावल भुट्टो के आने से दोनों देशों के रिश्ते बेहतर हो सकते हैं.
लेकिन मीटिंग के महज़ एक दिन बाद से ही दोनों देशों के विदेश मंत्रियों के तीखे बयान सामने आए थे.
अब विदेश मंत्री एस जयशंकर जब पाकिस्तान जा रहे हैं तो उनका रुख़ कैसा हो सकता है?
इस पर प्रोफ़ेसर पंत कहते हैं, ”वह पाकिस्तान में एससीओ शिखर सम्मेलन के मुद्दे को लेकर जा रहे हैं, न कि भारत-पाकिस्तान संबंधों पर बातचीत के लिए. जयशंकर वहां भारत की कंस्ट्रक्टिव भूमिका निभाने पर ज़ोर देंगे. इसलिए, मुझे नहीं लगता कि वह पाकिस्तान के साथ कोई द्विपक्षीय मतभेदों को उजागर करेंगे.”
वो आगे कहते हैं, ”एस जयशंकर का आक्रामक रुख़ अक्सर तब दिखता है जब पश्चिमी देशों के साथ मुद्दों पर बातचीत होती है. लेकिन अगर आप पड़ोसी देशों (पाकिस्तान को छोड़कर) की बात करें, तो उनकी कूटनीति अधिक सूक्ष्म रही है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण मालदीव है. उस समय जब मालदीव में प्रधानमंत्री मोदी की सोशल मीडिया पर आलोचना हो रही थी और काफी उथल-पुथल थी, तब भी भारत के विदेश मंत्रालय या नेताओं ने कोई टिप्पणी नहीं की. इसका नतीजा यह हुआ कि कुछ महीनों बाद भारत-मालदीव के संबंध सामान्य हो गए.”
बिलावल भुट्टो बीते साल एससीओ समिट में भाग लेने भारत आए थे
वहीं, पूर्व राजनयिक राजीव डोगरा को भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर से रिश्तों को बेहतर करने की उम्मीदें हैं, वो कहते हैं, ”हमारे विदेश मंत्री जब पाकिस्तान जाएंगे जो अनुभवी राजनयिक और अनुभवी नेता हैं तो उनका रवैया दूसरा होगा कि रिश्तों पर जमी बर्फ़ टूट सके. लेकिन बैठक एससीओ की है, ये ध्यान में रखना होगा.”
5 अक्टूबर को एस जयशंकर अपने दौरे के बारे में बताते हुए ये भी कहते हैं, ”मैं वहां एससीओ का एक अच्छा सदस्य होने के नाते जा रहा हूं. आपको पता है मैं विनम्र और सभ्य व्यक्ति हूं और मैं वहां इसी के अनुसार बर्ताव करूंगा.”
भारत-पाकिस्तान के लिए कितना अहम है एससीओ?
शंघाई सहयोग संगठन की स्थापना औपचारिक तौर पर साल 2001 में चीन, रूस और सोवियत संघ का हिस्सा रहे चार मध्य एशियाई देशों कज़ाकस्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान और उज़्बेकिस्तान ने मिलकर की थी.
हालांकि, इससे पहले अप्रैल 1996 में शंघाई में हुई एक बैठक में चीन, रूस, कज़ाकस्तान, किर्गिस्तान और ताजिकिस्तान आपस में एक-दूसरे के नस्लीय और धार्मिक तनावों से निपटने के लिए सहयोग करने पर राज़ी हुए थे. तब इसे शंघाई-फ़ाइव के नाम से जाना जाता था.
राष्ट्रपति पुतिन, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की ये तस्वीर जापान के ओसाका में हुए शंघाई सहयोग संगठन के शिखर सम्मेलन की है, तस्वीर 28 जून 2019 की है
साल 2017 में भारत और पाकिस्तान इस संगठन में पूर्ण सदस्य के तौर पर शामिल हुए थे, जबकि ईरान साल 2023 में इसका सदस्य बना. इस तरह कुल 9 देश एससीओ के सदस्य हैं.
अफ़ग़ानिस्तान, बेलारूस और मंगोलिया को शंघाई सहयोग संगठन में ऑब्ज़र्वर स्टेटस मिला हुआ है.
इस संगठन का नेतृत्व करने वाले रूस और चीन दोनों से ही पाकिस्तान के अच्छे संबंध हैं. साथ ही मध्य एशिया के देशों की वजह से भी ये पाकिस्तान के लिए अहम है. क्योंकि मध्य एशिया एक ऐसा भू-क्षेत्र है जहां पाकिस्तान व्यापार, कनेक्टिविटी और ऊर्जा को बढ़ावा देने की उम्मीद करता है.
वहीं, भारत के लिए ये बड़ा रणनीतिक मंच है, जो सीधे तौर पर पड़ोसी देशों और सेंट्रल एशिया से जुड़ा है.
प्रोफ़ेसर पंत का कहना है, ”चूंकि भारत की सेंट्रल एशिया से कनेक्टिविटी सीमित है, इसलिए एससीओ के माध्यम से वहां टिके रहना और अपनी भूमिका को बनाए रखना भारत के लिए महत्वपूर्ण है.”
”इसलिए इस दौरे को द्विपक्षीय दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि एक बहुपक्षीय मंच पर भारत की सहभागिता और कूटनीति के तौर पर देखा जाना चाहिए.”