14 दिसंबर, 1924 को मौजूदा पाकिस्तान के पेशावर में जन्मे राज कपूर की गिनती उन फ़िल्मकारों में होती है, जिन्होंने भारतीय सिनेमा को दुनिया भर में लोकप्रिय बनाया.
यक़ीन करना भले मुश्किल हो, लेकिन सच्चाई यही है कि तेज़ रफ़्तार इंटरनेट और आधुनिकतम तकनीक की आज की दुनिया से कोई 70 साल पहले राज कपूर ने भारतीय सिनेमा को दुनिया के कोने-कोने में पहुँचा दिया था.
राज कपूर की फ़िल्म ‘आवारा’ रूस की सबसे मशहूर फ़िल्मों में शुमार की जाती है, लेकिन राज कपूर की समाजवादी संदेश वाली फ़िल्मों का जादू चीन, ईरान, तुर्की, अमेरिका, पूर्वी यूरोप के कई देशों में आज भी महसूस किया जा सकता है.
बतौर फ़िल्मकार राज कपूर का करियर क़रीब 40 सालों का रहा. लेकिन उन्होंने कामयाबी, शोहरत और लीजेंड जैसी छवि महज़ तीन सालों के अंदर हासिल कर ली थी.
1947 में केदार शर्मा की फ़िल्म ‘नीलकमल’ में हीरो बनने वाले राज कपूर 1948 में ‘आग’ फ़िल्म के साथ आरके फ़िल्म्स की स्थापना करते हैं. इस फ़िल्म का विचार उनके मन में कहीं बाहर से नहीं आया था.
राज कपूर के दादा अपने बेटे पृथ्वीराज कपूर को सामाजिक रुतबे के लिहाज़ से दबदबे वाले पेशे वकालत में भेजना चाहते थे. लेकिन परिवार वालों से लगभग विद्रोह करके पृथ्वी राज कपूर ने थिएटर और फ़िल्मों का रास्ता चुना.
राज कपूर ने अपने पिता के इसी अनुभव को अपनी पहली ही फ़िल्म ‘आग’ में पर्दे पर उतार दिया था.
1948 में राज कपूर ने आग फ़िल्म के साथ निर्देशन की शुरुआत की
कठिन परवरिश
पृथ्वीराज कपूर पेशावर से कोलकाता आए और फिर तब की बंबई पहुँचे और भारतीय सिनेमा के कद्दावर कलाकार के तौर पर स्थापित होते गए.
राज कपूर उनके सबसे बड़े बेटे थे. लिहाज़ा वे बचपन से ही फ़िल्मों के प्रभाव में आ गए. उन्होंने पिता की फ़िल्मों में बाल कलाकार की भूमिका भी निभाई और देखते-देखते पढ़ाई से उनका मन उचट गया.
मैट्रिक में फ़ेल होने के बाद उन्होंने अपने पिता से बात करते हुए अपने इरादे ज़ाहिर कर दिए कि वे फ़िल्म निर्माण की दुनिया की बारीकियाँ सीखना चाहते हैं.
पृथ्वीराज कपूर ने अपने बेटे को शुरुआती सालों में ही गढ़ दिया. राज कपूर ने कई मौक़ों पर इसका ज़िक्र किया है कि उनके पिता के नाम का फ़ायदा उन्हें शुरुआती सालों में बहुत ज़्यादा नहीं मिला.
बीबीसी के चैनल फ़ोर के लिए सिमी गरेवाल ने राज कपूर पर 1986 में एक डॉक्यूमेंट्री बनाई थी- ‘लिविंग लीजेंड राज कपूर.’
इस डॉक्यूमेंट्री में राज कपूर ने कहा था, “पापा जी ने कह दिया कि फ़िल्म बनाने की बारीकियाँ सीखो. चौथे-पाँचवें असिस्टेंट के तौर पर. सेट पर पोछा लगाने से लेकर फ़र्नीचर इधर से उधर करने का काम किया. मैं उस वक़्त के सेलिब्रेटी एक्टर का बेटा ज़रूर था, लेकिन मैं नोबडी था. बस दो जोड़ी पैंट-बुशर्ट, रेन कोट और छाता के अलावा एक गम बूट मिलता था. साथ में दस रुपये महीने का जेब ख़र्च भी देते थे.”
हालांकि ये सख़्ती स्कूल के ज़माने से ही थी. राज कपूर की बेटी ऋतु नंदा ने ‘राज कपूर स्पीक्स’ नाम की किताब में लिखा है, “राज कपूर दूसरे बच्चों की तरह ट्राम से स्कूल जाते थे. एक दिन बहुत तेज़ बारिश हो रही थी. राज ने अपनी माँ से पूछा कि क्या वो आज कार से स्कूल जा सकते हैं? उन्होंने कहा मैं तुम्हारे पिता से पूछकर बताती हूँ. पृथ्वीराज कपूर ने जब ये सुना तो उन्होंने कहा इस बारिश में पानी के थपेड़े झेलते हुए स्कूल जाने में भी एक ‘थ्रिल’ है. उसको इसका भी तजुर्बा लेने दो.”
राज कपूर दरवाज़े के पीछे ये बातचीत सुन रहे थे. उन्होंने अपने पिता से ख़ुद कहा, “सर, मैं ट्राम से ही स्कूल जाऊँगा.”
ऋतु नंदा ने इसके बाद का ब्योरा भी लिखा है, “पृथ्वीराज कपूर ने जब बालकनी से राज को भीगते हुए स्कूल जाते देखा, तो उन्होंने अपनी पत्नी रामसमी से कहा, एक दिन इस लड़के के पास उसके पिता से कहीं ज़्यादा फ़ैंसी कार होगी.”
पिता के साये से बाहर निकलना
कपूर ख़ानदान की तीन पीढ़ियों ने आवारा फ़िल्म में काम किया था. राज कपूर अपने पिता पृथ्वीराज कपूर और दादा बिशेश्वर नाथ कपूर (बीच में) के साथ
कपूर ख़ानदान पर बहुचर्चित किताब ‘द कपूर्स-द फ़र्स्ट फैमिली ऑफ़ इंडियन सिनेमा’ लिखने वाली मधु जैन भी इसी तरह का एक और क़िस्सा बताती हैं.
उन्होंने लिखा है, “एक बार जब पृथ्वीराज कपूर अपने घर से बाहर निकले, तो उन्होंने देखा कि राज कपूर खड़े हुए हैं. उन्होंने पूछा कि तुम अब तक स्टूडियो क्यों नहीं गए? इसके बाद वो अपनी कार में बैठे और तेज़ी से आगे निकल गए. दोनों को एक ही जगह जाना था, लेकिन उनके पिता ने उन्हें अपनी कार में नहीं बैठाया और राज कपूर को वहाँ जाने के लिए बस लेनी पड़ी.”
क्या ही दिलचस्प संयोग है कि अपनी पहली कामयाब फ़िल्म ‘बरसात’ के हिट होने के बाद राज कपूर ने ना केवल अपने लिए नई कंर्वेटिबल कार ख़रीदी बल्कि अपने पिता को भी एक ब्लैंक चेक दिया कि वे कार ख़रीदें. लेकिन पिता ने उस चेक को कभी नहीं भुनाया.
पिता के क़द को देखते हुए राज कपूर ने शुरुआती दिनों में ये तय कर लिया था कि उन्हें अपने पिता से कुछ अलग करना होगा, तभी उनकी अपनी पहचान बन पाएगी. उन्होंने अपने पिता की दबंग छवि और भूमिकाओं से अलग हटकर आम लोगों की भूमिकाओं को निभाने पर ज़ोर दिया.
एक संपन्न घर के युवा और आकर्षक लुक के बावजूद वे आम मेहनतकश लोगों में ख़ुद को देखने लगे. अपने पिता की लाउड संवाद अदायगी के सामने वे अटक अटक कर गंवई अंदाज़ में बोलने वाले नायक बने.
इतनी भिन्नता के साथ अपनी पहली ही फ़िल्म ‘आग’ से उन्होंने सिनेमाई दुनिया में मज़बूत उपस्थिति दर्ज की. अपने पिता से अलग दिखने की चाहत में उन्होंने अभिनय के साथ निर्देशन को भी चुना. बरसात उनकी दूसरी फ़िल्म थी, और नरगिस के साथ उनकी जोड़ी सुपरहिट साबित हुई.
बहरहाल राज कपूर के जीवन का सबसे बड़ा टर्निंग प्वाइंट जल्दी ही आ गया. हालाँकि ये मौक़ा उनसे पहले महबूब ख़ान के पास गया था. ख़्वाजा अहमद अब्बास ने जब ‘आवारा’ की कहानी लिखी, तो उन्होंने सबसे पहले महबूब ख़ान को ये कहानी सुनाई.
अब्बास इस फ़िल्म के लिए पृथ्वीराज कपूर और राज कपूर को लेने की वकालत कर रहे थे और महबूब ख़ान पृथ्वीराज कपूर और दिलीप कुमार के साथ इस फ़िल्म को करना चाहते थे.
इससे ठीक पहले 1949 में महबूब ख़ान ने राज कपूर, नरगिस और दिलीप कुमार को लेकर ‘अंदाज़’ फ़िल्म बनाई थी और ये फ़िल्म सुपरहिट साबित हुई थी.
जयप्रकाश चौकसे ने राज कपूर की सृजन प्रक्रिया में लिखा है कि महबूब ख़ान और अब्बास के बीच इस बात को लेकर बहस हो गई थी कि पृथ्वीराज कपूर के बेटे का रोल कौन बेहतर निभा सकता है.
अब्बास का तर्क ये था कि असली जीवन में भी बाप-बेटे होने के चलते अगर बेटे का रोल राज कपूर निभाएँ, तो फ़िल्म को अतिरिक्त फ़ायदा होगा. इस बहस के दौरान नरगिस भी वहीं मौजूद थीं.
चौकसे ने लिखा है कि महबूब ख़ान ने ही नरगिस को सिने पर्दे पर ब्रेक दिया था, लेकिन ‘बरसात’ की वजह से वह राज कपूर के नज़दीक भी थीं. उन्होंने इस बहस की बात राज कपूर को बताई होगी.
क्योंकि राज कपूर ने इसके बाद तुरंत अब्बास से संपर्क साधते हुए इस फ़िल्म का अधिकार ख़रीद लिया. फिर उन्होंने पर्दे पर जो किया, उसकी मिसाल आज भी दी जाती है.
मार्क्सवादी अब्बास के साथ राज कपूर की जोड़ी ख़ूब जमी. अब्बास ने लिखा है, “आवारा से शुरू हुए सफ़र में राज कपूर हावी होते गए और ‘बॉबी’ पूरी तरह से मेरी नहीं, बल्कि उनकी फ़िल्म बन गई थी.”
‘आवारा’ फ़िल्म को बनाते समय राज कपूर की आरके फ़िल्म्स महज़ दो फ़िल्म पुरानी थी. ‘आग’ और ‘बरसात’. ‘बरसात’ की कामयाबी ने राज कपूर को इतना आश्वस्त कर दिया था कि वो ‘आवारा’ को बनाने में किसी तरह का कोई समझौता नहीं कर रहे थे.
बरसात (1949) ने आर के फ़िल्म्स को स्टूडियो के तौर पर स्थापित कर दिया
इसकी एक बानगी का ज़िक्र ख़्वाजा अहमद अब्बास ने भी किया. वे ‘आवारा’ के लेखक थे.
उन्होंने लिखा, “एक शाम फ़िल्म की शूटिंग के दौरान मैं राज कपूर के साथ था. तभी उनके एक असिस्टेंट ने आकर कहा कि फ़ाइनेंसर एमजी ने जो पैसे दिए थे, वो ख़त्म हो गए हैं और अब कोई पैसा नहीं बचा है. उसी रात राज कपूर ने फ़िल्म के ड्रीम सीक्वेंस को शूट करना शुरू किया था. उस सीक्वेंस को शूट करने में तीन महीने का वक़्त और तीन लाख रुपये का ख़र्च आया था.”
‘आवारा’ की कहानी काफ़ी हद तक प्रगतिशील कहानी थी, जिसमें एक वकील (जो बाद में जज बने) ने अपनी पत्नी को घर से निकाल दिया और उनका बेटा गुंडे मवालियों की सोहबत में अपराधी बन जाता है.
फिर अदालत में वह अपने ही पिता के सामने खड़ा हो जाता है. फ़िल्म के अंत में वह वापस लौट आता है, अपने पिता के पास.
दरअसल इस सिनेमा का नायक आज़ादी के बाद के भारत को विरासत में मिली दरिद्रता से निकला था. ‘आवारा’ एक तरह से कीचड़ में खिला कमल था, जिसमें लोग अपने जीवन में परिवर्तन की झलक देख रहे थे.
यह उम्मीद का सबब लेकर आई फ़िल्म थी, जिसमें राज कपूर का अभिनय अपने सर्वोत्कृष्ट दौर में दिखा और उनके अंदर का टॉप क्लास निर्देशक भी जगज़ाहिर हुआ. इस फ़िल्म के गीत संगीत का जादू आज क़रीब 73 साल बीतने के बाद क़ायम है.